पृथ्वी पर मानव सभ्यता के जन्म और उसकी विकास यात्रा के प्रारंभिक दौर का एक महत्वपूर्ण गवाह छत्तीसगढ़ भी है ।
रायपुर, 18 फरवरी(36गढ़ डाट इन) पृथ्वी पर मानव सभ्यता के जन्म और उसकी विकास यात्रा के प्रारंभिक दौर का एक महत्वपूर्ण गवाह छत्तीसगढ़ भी है ।
रायगढ़, उत्तर बस्तर (कांकेर), कोरिया, दुर्ग, सरगुजा और बस्तर (जगदलपुर) जिले की अनेक पहाड़ी गुफाओं और पहाड़ियों की दीवारों पर आदि मानवों द्वारा उकेरे गए शिकार आदि के दृश्य स्पष्ट रूप से यह संकेत दे रहे हैं कि उस प्रागैतिहासिक दौर में छत्तीसगढ़ की धरती पर कभी आदि मानवों का भी बसेरा हुआ करता था।
ये रहस्यमय शैल चित्र आज उन्हें देखने वालों के मन-मस्तिष्क में भारी कौतुहल और जिज्ञासा पैदा करते हैं कि आखिर वह कौन सा प्राकृतिक रंग था, जो धूप, धूल और हवा के थपेड़े सहते हुए आज भी अपनी जगह पर कायम हैं ।
हालांकि समय के प्रवाह में रहस्यमय शैल चित्रों के इस खजाने से कई चित्र विभिन्न प्राकृतिक कारणों से धुंधले भी होते जा रहे हैं, लेकिन राज्य के पुरातत्व संचालनालय द्वारा इन सभी शैल चित्रों के संरक्षण के हर संभव प्रयास किए जा रहे हैं।
पुरातत्व अधिकारियों ने इनके संरक्षण के लिए जन सहयोग की जरूरत पर भी बल दिया है।पुरातत्व वेत्ताओं के अनुसार कहीं गेरूई रंग तो कहीं सफेद रंग से निर्मित इनमें से कई शैल चित्र तो पच्चीस हजार से पचास हजार साल पुराने हैं।
इनमें उस जमाने के पर्यावरण और शिकार आधारित सामूहिक जीवन शैली का पता चलता है। प्रदेश के इन जिलों में अब तक 22 से कुछ अधिक गांवों के आस-पास की पहाड़ी श्रृंखलाओं में आदि मानवों के शैल चित्रों का पता लगाया गया है।
इनमें से सर्वाधिक तेरह स्थान रायगढ़ जिले में हैं। इस जिले के ग्राम ओंगना के पहाड़ पर दस सिरों वाली रावणनुमा मानव आकृति, इसी जिले के तहसील मुख्यालय खरसिया के नजदीक भंवरखोल की गुफा में अंकित मत्स्य कन्या और दुर्ग जिले में दल्लीराजहरा मार्ग पर चितवाडोंगरी में निर्मित ड्रेगन की आकृति वाले शैल चित्र तत्कालीन समय के आदिम कलाकारों की कल्पनाशीलता का भी परिचय देते हैं।
राज्य सरकार के पुरातत्व संचालनालय के अधिकारियों ने आज यहां बताया कि राज्य में मध्याश्मीय काल से लेकर ऐतिहासिक काल तक के शैलाश्रय मौजूद हैं, जो इतिहास और पुरातत्व के मानचित्रों में राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रसिध्द हो चुके हैं।
घने जंगलों से घिरे पहाड़ों की बांहों में बनाए गए इन शैल चित्रों पर दुनिया की पहली नजर लगभग एक सौ वर्ष पहले सन 1910 में उस समय पड़ी जब अंग्रेज अनुसंधानकर्ता श्री एण्डरसन ने उन्हें खोज निकाला।
इसके बाद वर्ष 1918 में इंडिया पेंटिंग्स में और इनसाईक्लोपीड़िया ब्रिटेनिका के तेरहवें अंक में रायगढ़ जिले के सिंघनपुर की पहाड़ियों के शैल चित्रों का प्रकाशन हुआ।
भारतीय इतिहासकार श्री अमरनाथ दत्त ने सन 1923 से 1927 के बीच रायगढ़ जिले में व्यापक सर्वेक्षण कर और भी अनेक शैल चित्रों का पता लगाया। उनके बाद डॉ. एन. घोष, डी.एच. गार्डन और पंडित लोचन प्रसाद पाण्डेय ने भी इस दिशा में अध्ययन और अनुसंधान के महत्वपूर्ण कार्य किए।
रायगढ़ जिले में सिंघनपुर के शैल चित्र जिला मुख्यालय रायगढ़ से पश्चिम दिशा में लगभग 20 किलोमीटर पर ऊंची पहाड़ी पर निर्मित हैं। इनकी गिनती दुनिया के सर्वाधिक पुराने शैल चित्रों में होती है। ये शैल चित्र अब लगभग धुंधले हो चले हैं।
इनमें सीढ़ीनुमा पुरूषाकृति, मत्स्य-कन्या और पशु आकृतियों सहित शिकार के दृश्य भी अंकित हैं। सिंघनपुर के अलावा जिला मुख्यालय रायगढ़ से केवल आठ किलोमीटर पूर्व में स्थित कबरा पहाड़ भी उल्लेखनीय है। इस पहाड़ पर निर्मित चित्र गैरिक रंग के हैं।
इनमें जंगली भैंसा, कछुआ और पुरूष आकृतियों के साथ ज्यामितिक अलंकरण विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। आदि मानवों के शैल चित्रों की दृष्टि से रायगढ़ जिला काफी समृध्द है। जिले में सिंघनपुर के शैलाश्रयों से दक्षिण पश्चिम में लगभग 17 किलोमीटर की दूरी पर ग्राम बसनाझर (तहसील खरसिया) की पहाड़िया में तो आदि मानवों द्वारा तीन सौ से अधिक चित्र अंकित किए गए हैं ।
जिनमें हाथी, गेंडा, जंगली भैंसा, सामूहिक नृत्य और शिकार आदि के दृश्य अंकित हैं। जिले के तहसील मुख्यालय खरसिया से केवल आठ किलोमीटर ग्राम बोतल्दा के नजदीक स्थित पहाड़ियों में करीब दो हजार फीट की ऊंचाई पर सिंह गुफा स्थित है, जिसकी दीवारों पर पशुओं के शिकार दृश्य और ज्यामितीय अलंकरण हजारों वर्ष पहले के मानव जीवन की हलचल का संकेत देते हैं।
रायगढ़ जिले में तहसील मुख्यालय खरसिया से बारह किलामीटर पर सूती घाट के नजदीक ग्राम पतरापाली के पास की पहाड़ियों में भंवरखोल नामक प्रसिध्द शैलाश्रय है, जिसकी दीवारों पर मत्स्य-कन्या, जंगली भैंसा, भालू, मानव हथेली और भारतीय संस्कृति के शुभंकर ‘स्वास्तिक’ चिन्ह भी अंकित हैं।
मत्स्य-कन्या का चित्रांकन आश्चर्य के साथ यह सोचने को विवश करता है कि उस आदिम युग का मनुष्य भी कितना कल्पनाशील था।जिला मुख्यालय रायगढ़ से लगभग 72 किलोमीटर पर उत्तर दिशा में धर्मजयगढ़ के नजदीक ओंगना पहाड़ पर इस प्रकार के एक सौ से अधिक शैलचित्र देखे जा सकते हैं।
इसमें बैलों के समूह और यहां तक कि दस सिरों वाली मानव आकृति भी शामिल हैं। इतना ही नहीं बल्कि जिला मुख्यालय से ही तीस किलोमीटर पर कर्मागढ़ की पहाड़ियों में तो सवा तीन सौ से भी ज्यादा चित्रांकन हजारों वर्ष पहले के द्वारा किए गए हैं। इनमें ज्यामिती आकृति सहित अन्य कई आकार प्रकार के चित्र उल्लेखनीय हैं।
रायगढ़ से ही बारह किलोमीटर पर टीपा खोल जलाशय के नजदीक खैरपुर की पहाड़ी में पशु पक्षियों की आकृति वाले शैल चित्र भी दर्शकों के लिए कौतुहल का केन्द्र हैं।
खरसिया से ही दो किलोमीटर पर ग्राम सोनबरसा की पहाड़ी में अमर गुफा, जिला मुख्यालय रायगढ़ से 32 किलोमीटर पर ग्राम भैंसगढ़ी, बिलासपुर-रायगढ़ मार्ग पर सूती घाट तथा रायगढ़ जिले के ही तहसील मुख्यालय सारंगढ़ के नजदीक ग्राम गाताडीह और सिरौली डाेंगरी की पहाड़ियों में बने शैलाश्रय और शैल चित्र भी पुरातत्वविदों के लिए अनुसंधान का विषय बने हुए हैं।
उधर छत्तीसगढ़ के आदिवासी बहुल उत्तर बस्तर (कांकेर) जिले में चारामा तहसील के ग्राम उड़कुड़ा की पहाड़ियों में मेगालिथिक युग के आदि मानवों द्वारा निर्मित चित्र प्राप्त हुए हैं।
वहां तीन शैलाश्रय हैं, जिन्हें जोगी बाबा का स्थान, चंदा परखा और कचहरी के नाम से जाना जाता है। इन शैल चित्रों में मानव हथेली और पैरों के चिन्ह, पशुओं और धनुर्धारी मानव उल्लेखनीय है।
चारामा-कांकेर मार्ग पर चारामा से नौ किलोमीटर दक्षिण्ा में स्थित ग्राम कानापोड़ से पश्चिम दिशा में बारह किलोमीटर पर गारागौरी की पहाड़िया में शीतला माता नामक स्थान पर भी अनेक शैल चित्र बने हुए हैं, हालांकि अधिकांश शैल चित्र समय के प्रवाह में धुंधले हो चुके हैं।
इनमें पशु आकृतियां भी उकेरी गई हैं। ग्राम कानापोड़ से पश्चिम दिशा में पांच किलोमीटर पर स्थित ग्राम खैरखेड़ा की पहाड़ियों में भी अनेक शैल चित्र अंकित हैं। इस पहाड़ी को बालेरा के नाम से भी जाना जाता है।
इन शैल चित्रों में पशु और मानव आकृतियां, धनुर्धर और मानव हथेली के चित्र देखे जा सकते हैं। जिला मुख्यालय कांकेर से बारह किलोमीटर पर ग्राम कुलगांव और बीस किलोमीटर पर ग्राम पीढ़ापाल की पहाड़ियों में भी इस प्रकार के अनेक शैल चित्र पाए गए हैं।
जिले के गोटीटोला-चारामा-कांकेर मार्ग पर ग्राम लखनपुरी से आठ किलोमीटर दूर गोटीटोला के मधुवन पारा के नजदीक सीताराम गुड़ा नामक स्थान पर कई पौराणिक शैल चित्र मिले हैं, जिनमें राम कथा के दृश्य विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। ये शैल चित्र सफेद रंग से अंकित किए गए हैं।
पुरातत्व अधिकारियों ने यह भी बताया कि छत्तीसगढ़ के ही कोरिया जिले में जनकपुर (भरतपुर) तहसील के मुरेरगढ़ की पहाड़ी पर कोहबउर नामक शैलाश्रय के शैल चित्रों में भी आदि मानवों द्वारा निर्मित पशु और मानव आकृतियां और तत्कालीन आदिम कबीलों के दैनिक जीवन की हल-चल को देखा और महसूस किया जा सकता है।
राज्य के दुर्ग जिले में दल्लीराजहरा मार्ग पर ग्राम सहगांव के नजदीक चितवा डाेंगरी के शैलाश्रय की दीवारों पर गेरूई रंग में अंकित शैल चित्रों में से एक चित्र ड्रेगन के आकार का नजर आता है। इसके अलावा इनमें तत्कालीन आदिम समाज की कृषि आधारित जीवन शैली को भी देखा जा सकता है।
राज्य के बस्तर (जगदलपुर) जिले के केशकाल और लिमदरिया तथा सरगुजा जिले में सीतालेखनी और ओड़गी की पहाड़ियों में भी शैल चित्र पाए गए हैं।
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